गुरुवार, 6 जुलाई 2017

तुलसी देवी : उत्तराखण्ड की उद्यमशील और समाजसेवी महिला

                              उद्यमशीलता के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण नाम है तुलसी देवी जी का, पिथौरागढ़ जिले के नौलरा गांव में 1919 में भोटिया व्यापारी श्री खीम सिंह रावत और सरस्वती रावत के घर पर उनका जन्म हुआ। पर्वतीय क्षेत्र की भोटिया जनजाति का साग-सब्जी से हरा-भरा यह छोटा सा गांव उनका अस्थाई आवास था, जहां ऊन धोने, सुखाने, तकुओं पर कातने तथा ऊनी वस्त्र बुनने में महिलायें व्यस्त रहती थीं। तुलसी देवी का शैशव ऐसे ही वातावरण में बीता, मात्र पांच साल की उम्र में भी तुलसी के पिता और भाई का देहान्त हो गया। अतः मां-बेटी इस असहाय स्थिति में एक दूसरे के सहारे जीने लगीं।

                                        मां ने तुलसी देवी को प्राथमिक शिक्षा दिलाई, यह ’माइग्रेशन’ वाला स्कूल था, सम्पन्न व्यापारी अपने बच्चों को इसके बाद अल्मोड़ा या पिथौरागढ़ भेजते थे। किन्तु पितृविहीन तुलसी आगे न पढ़ पाई। इसी बीच तुलसी देवी की मां 1940 में अपने भतीजे के पास ग्वालदम चलीं आईं और 1943 में एक संभ्रान्त परिवार के दीवान सिंह राणा के साथ तुलसी का विवाह हुआ। इसके बाद इनका जीवनाध्याय नये ढंग से प्रारम्भ हुआ, किन्तु 17 वर्ष की आयु में ही तुलसी को वैधव्य की मार झेलनी पड़ी। इनके ससुराल वालों ने परम्परानुसार उनका विवाह उनके देवर से करना चाहा, किन्तु तुलसी ने इसे घृणास्पद समझा। उन्होंने इसका विरोध किया और सम्पन्नता को त्याग कर अपनी मां के पास लौट आईं।

                तुलसी अपनी विपत्ति से जूझती हुई अपने ऊनी कारोबार में कर्मठता से जुट गई, किन्तु वह और भी कुछ करना चाहती थीं। इनके एक चचेरे भाई कांगेसी कार्यकर्ता थे, उन्होंने चाय बागान की कुछ भूमि तुलसी देवी को दान में दे दी, जब चाय बगान खत्म हुये तो तीन नाली भूमि लीज पर तुलसी देवी के नाम पर कर दी। तुलसी देवी ने उस जमीन पर अपना घर बनाया और अपनी आजीविका के प्रबन्ध करने लगीं।

                                 1946 में कौसानी में महात्मा गांधी की शिष्या सरला बहन ने महिलाओं के लिये एक संस्था लक्ष्मी आश्रम खोली, तुलसी देवी सरला बहन के सम्पर्क में आई। जुझारु और चिंतनशील तुलसी देवी ने सोचा कि अपनी भूमि केवल व्यक्तिगत सुख के लिये ही क्यों उपयोग की जाय। अतः मन में आश्रम से प्रेरणा लेकर इन्होंने 1952 में इस भूमि पर कताई-बुनाई केन्द्र की स्थापना की और 1957 में ऊन गॄह उद्योग समिति  के नाम से एक संस्था गठित कर उसे पंजीकृत करवाया। परमार्थी तुलसी देवी ने असहाय स्त्रियों को ऊन उद्योग का प्रशिक्षण देकर स्वालम्बी बनाकर टूटते परिवारों को सहारा दिया। वे सदैव आश्रम से सम्पर्क बनाये रखतीं, उन्होंने निष्ठापूर्वक कार्य करते हुये कई अनाथ बालिकाओं का पालन-पोषण कर शिक्षा-दीक्षा देकर उनका विवाह कर नई राह दी। इसी प्रकार से बालकों को भी प्रशिक्षित कर स्वरोजगार के अवसर उन्हें सुलभ करवाये। उदार दॄष्टिकोणवादी तुलसी 1972 में जिला कांग्रेस कमेटी की महिला संयोजिका के रुप में कार्य करने लगीं औत थराली प्रखण्ड की क्षेत्रीय सदस्या भी निर्वाचित हुईं। 1974 में वे जिला परिषद चमोली की अध्यक्ष रहीं, 1977 में उत्तर प्रदेश राज्य समाज कल्याण सलाहकार बोर्ड द्वारा सीमान्त कल्याण विस्तार परियोजना, ग्वालदम की अध्यक्ष भी मनोनीत की गई। उन्होंने अपनी संस्था में 1978 से अर्धशिक्षित महिलाओं और लड़कियों के लिये एक कंडेस्ड कोर्स चलाया, उन्होंने 1980 में ट्राइसेम योजना के अन्तर्गत प्रशिक्षण देना शुरु किया, जो 1987 तक चला। उन्होंने इन प्रशिक्षित महिलाओं को ’हाड़ा’ योजना के तहत ॠण दिलवाकर करघों की बुनाई के साधन दिलवाये। उन्होंने ग्रामीण इलाकों को छोटे बच्चों को शिक्षा से जोड़ने के लिये बालवाड़ी के कार्यक्रम भी चलवाये।

                           आविष्कारक प्रकृति की तुलसी देवी ने 1967 में एक नये प्रकार का शाल बनाया, जिसे उन्होंने तुलसी रानी शाल नाम दिया। इसका प्रथम निर्माण आस्ट्रेलियन ऊन पर किया, जो उतना सफल नहीं रहा, बाद में अंगोरा ऊन से यह शाल बनाया, जो अपनी सुंदरता के कारण लोगों को बहुत पसन्द आया। 1983 में इस शाल के निर्माण हेतु उन्होंने तुलसी रानी शाल फैक्टरी भी बनायी।

तुलसी देवी ने महिलाओं को सन्देश देते हुये एक बार कहा था कि ’रोओ नहीं, आगे बढ़ो, यदि शिक्षित नहीं हो तो अपने हाथों व दिमाग का उपयोग करो, हारो नहीं, भगवान ने तुम्हें शक्ति दी है, उसको बढ़ाओ, अपने पैरो पर खड़ी हो जाओ।’

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