मंगलवार, 7 मई 2019

कीर्तिशाह

कीर्तिशाह
⏩ 19 जनवरी, 1874 को जन्में। 13 वर्ष की आयु में गद्दी में बैठे।
⏩ महारानी गुलेरिया के प्रभूत्वाधिन कार्य।
⏩ 1892 में नेपाल के प्रधनमंत्री जंग बहादुर की पौत्री से विवाह संपन्न हुआ।
⏩ गुलेरिया ने संरक्षण समिति बनाई। जिसमें तीन सदस्य- ✴️शिवदत्त डंगवाल ✴️केवल राम रतूड़ी ✴️ विश्वेश्वर दत्त सकलानी।
❇️ रघुनाथ भट्टाचार्य नामक बंगाली को उक्त समिति का सचिव बनाया गया।
❇️ 1891 में सर एक्लेन्ड कॉल्विन up के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने कॉउन्सिल का निरीक्षण किया और कार्य की प्रशंसा की।
⏩ हरिशरण रतूड़ी के संरक्षण में बरेली, अजमेर से शिक्षा ग्रहण की।
⏩ प्रताप स्कूल को हाई स्कूल बनाया।
⏩ हेवेट संस्कृत पाठशाला बनाई।
⏩ एक मदरसा भी खुलवाया।
⏩ प्रत्येक पट्टी में एक प्राइमरी पाठशाला एवं पटवारी प्रशिक्षण केंद्र खुलवाया।
⏩ रियासत टिहरी गढ़वाल दरबार गजट का प्रकाशन करवाया।
⏩ गंगोत्री-यमुनोत्री मार्ग पर चिकित्सालय खुलवाए।
⏩ महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती पर 1897 में टिहरी में घण्टाघर बनवाया।
⏩ PWD जैसा पृथक विभाग खुलवाया।
⏩ बैंक ऑफ गढ़वाल की स्थापना की।
⏩ गढ़वाल सैपर्स नामक पलटन का गठन किया।
⏩ हजुरकोर्ट की स्थापना की। (चीफ कोर्ट भी कहा जाता है)
⏩ विलोली ग्राम की भूमि पर कीर्तिनगर की स्थापना की।
⏩ 1902 में स्वामी रामतीर्थ को जापान में सर्वधर्म सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए आर्थिक सहयोग दिया
⏩ हरिकृष्ण रतूड़ी को गढ़वाल का इतिहास लिखने हेतु आर्थिक मदद प्रदान की। (केदारखण्ड की हस्तलिखित प्रति भी प्रकाशित करवाई)
⏩ मुआफ़ीदारों के कानूनी अधिकार समाप्त किये।
(रूप सिंह कण्डारी के आंदोलन के कारण)
⏩ कीर्तिशाह का देहांत 25 अप्रैल, 1913 को हुआ। (राजमाता गुलेरिया जीवित थी और नरेंद्र शाह मात्र 15 वर्ष के थे)
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गुरुवार, 6 जुलाई 2017

कवि गुमानी पन्त जी

                               कवि गुमानी पन्त जी का जन्म विक्रत संवत्  1857, कुमांर्क गते 27, बुधवार, फरवरी 1790 को काशीपुर में हुआ था, इनका पैतृक निवास स्थान ग्राम-उपराड़ा, गंगोलीहाट, पिथौरागढ़ था। इनका मूल नाम लोकनाथ पन्त था। कहते हैं कि काशीपुर के महाराजा गुमान सिंह की सभा में राजकवि रहने के कारण इनका नाम लोकरत्न “गुमानी” पड़ा और कालान्तर में ये इसी नाम से प्रसिद्ध हुये। गुमानी जी ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने चाचा श्री राधाकृष्ण पन्त तथा बाद में कल्यूं(धौलछीना) अल्मोड़ा के सुप्रसिद्ध ज्योतिषी पण्डित हरिदत्त पन्त से शिक्षा ग्रहण की, इसके अतिरिक्त आपने चार वर्ष तक प्रयाग में शिक्षा ग्रहण की। ज्ञान की खोज में आप वर्षों तक देवप्रयाग और हरिद्वार सहित हिमालयी क्षेत्रों में भ्रमण करते रहे, इस दौरान आपने साधु वेश में गुफाओं में वास किया। कहा जाता है कि देवप्रयाग क्षेत्र में किसी गुफा में साधनारत गुमानी जी को भगवान राम के दर्शन हो गये और भगवान श्री राम ने गुमानी जी से प्रसन्न होकर सात पीढियों तक का आध्यात्मिक ज्ञान और विद्या का वरदान दिया। अपने जीवनकाल में गुमानी जी कोई महाकाव्य तो नहीं लिखा, किन्तु समकालीन परिस्थितियों पर बहुत कुछ लिखा। गुमानी जी मुख्यतः संस्कृत के कवि और रचनाकार थे। किन्तु खड़ी बोली और कुमाऊंनी में भी आपने बहुत कुछ लिखा है। संस्कृत में श्लोक और भावपूर्ण कविता रचने में इन्हें विलक्षण प्रतिभा प्राप्त थी।

गुमानी जी को खड़ी बोली का पहला कवि कहा जाता है (यद्यपि हिन्दी साहित्य में ऐसा कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं है), ऐसा संभवतः इसलिये कि प्रख्याल हिन्दी नाटककार और कवि काशी के भारतेन्दु हरिशचन्द्र, जिन्हें हिन्दी साहित्य जगत में खडी बोली का पहला कवि होने का सम्मान प्राप्त है, का जन्म गुमानी जी के निधन (1846) के चार वर्ष बाद हुआ था।

         काशीपुर के राजा गुमान सिंह के दरबार में इनका बड़ा मान-सम्मान था, कुछ समय तक गुमानी जी टिहरी नरेश सुदर्शन शाह के दरबार में भी रहे। इनकी विद्वता की ख्याति पड़ोसी रियासतों- कांगड़ा, अलवर, नाहन, सिरमौर, ग्वालियर, पटियाला, टिहरी और नेपाल तक फ़ैली थी।

गुमानी विरचित साहित्यिक कृतियां-
रामनामपंचपंचाशिका, राम महिमा, गंगा शतक, जगन्नाथश्टक, कृष्णाष्टक, रामसहस्त्रगणदण्डक, चित्रपछावली, कालिकाष्टक, तत्वविछोतिनी-पंचपंचाशिका, रामविनय, वि्ज्ञप्तिसार, नीतिशतक, शतोपदेश, ज्ञानभैषज्यमंजरी।

उच्च कोटि की उक्त कृतियों के अलावा हिन्दी, कुमाऊंनी और नेपाली में कवि गुमानी की कई और कवितायें है- दुर्जन दूषण, संद्रजाष्टकम, गंजझाक्रीड़ा पद्धति, समस्यापूर्ति, लोकोक्ति अवधूत वर्णनम, अंग्रेजी राज्य वर्णनम, राजांगरेजस्य राज्य वर्णनम, रामाष्टपदी, देवतास्तोत्राणि।

हिमालय के इस महान सपूत व कूर्मांचल गौरव की साहित्य साधना पर अपेक्षाकृत बहुत कम लिखा ग्या है। 1897 में चन्ना गांव, अल्मोड़ा के देवीदत्त पाण्डे जी ने “कुमानी कवि विरचित संस्कृत एवं भाषा काव्य” लिखा है और रेवादत्त उप्रेती ने “गुमानी नीति” नामक पुस्तकों में कवि का साहित्यिक परिचय दिया है। उपराड़ा में गुमानी शोध केन्द्र इन पर व्यापक शोध कर रहा है।

गुमानी जी कुमाऊँनी तथा नेपाली के प्रथम कवि तो थे ही, साथ ही हिन्दी तथा संस्कृत भाषा पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी. यह छन्द देखिये। चार पंक्तियों के छन्द की प्रत्येक पंक्ति में अलग भाषा का प्रयोग है।

बाजे लोक त्रिलोक नाथ शिव की पूजा करें तो करें (हिन्दी)
क्वे-क्वे भक्त गणेश का में बाजा हुनी तो हुनी (कुमाऊँनी)
राम्रो ध्यान भवानी का चरण मा गर्दन कसैले गरन् (नेपाली)
धन्यात्मातुलधाम्नीह रमते रामे गुमानी कवि (संस्कृत)


खड़ी बोली का उद्भव भारतेन्दु युग में माना जाता है, जोकि 1850 के आस-पास शुरू होता है। लेकिन निम्न पद गुमानी जी द्वारा 1816 में रचित है, इसमें खड़ी बोली का प्रयोग स्पष्ट है। इस तरह गुमानी जी को खड़ी बोली का प्रथम कवि माना जाना चाहिये।

विष्णु देवाल उखाड़ा ऊपर बंगला बना खरा
महराज का महल ढहाया बेड़ी खाना वहाँ धरा
मल्ले महल उड़ाई नन्दा बंगलों से वहाँ भरा
अंग्रेजों ने अल्मोड़े का नक्शा औरी और करा


            एक महान आदमी का गुण यह है कि वह अपने मूल से हमेशा लगाव महसूस करता है। अपने पैतृक गांव उपराडा का सुन्दर वर्णन गुमानी जी ने इन शब्दों में किया है-
उत्तर दिशि में वन उपवन हिसालू काफल किल्मोड़ा.
दक्षिण में छन गाड़ गधेरा बैदी बगाड़ नाम पड़ा.
पूरब में छौ ब्रह्म मंडली पश्चिम हाट बाजार बड़ा.
तैका तलि बटि काली मंदिर जगदम्बा को नाम बड़ा.
धन्वन्तरि का सेवक सब छन भेषज कर्म प्रचार बड़ा.
धन्य धन्य यो ग्राम बड़ो छौ थातिन में उत्तम उपराड़ा.


गुमानी जी का जन्म काशीपुर में हुआ और वह काशीपुर के तत्कालीन राजा गुमान सिंह देव के दरबार में कवि रहे। गुमानी जी द्वारा काशीपुर के बारे में लिखे गये अनेक पदों मे से एक यह है 

यहाँ ढेला नद्दी उत बहत गंगा निकट में
यहाँ भोला मोटेश्वर रहत विश्वेश्वर वहाँ
यहाँ सण्डे दण्डे कर धर फिरें शाँडउत ही
फरक क्या है काशीपुर शहर काशी नगर में?


                  सर जार्ज ग्रियर्सन ने ‘लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’ में गुमानी जी की दो रचनाओं- गुमानी नीति और गुमानी काव्य-संग्रह का उल्लेख किया है। गुमानी नीति का संपादन देवीदत्त उप्रेती ने 1894 में किया है। गुमानी काव्य-संग्रह का संकलन और संपादन देवीदत्त शर्मा ने 1837 में किया। इसके अलावा उनका कोई संग्रह प्रकाशित नहीं हो सका। कुछ पत्र-पत्रिकाओं में उनके बारे में लेख अवश्य प्रकाशित हुए। पंडित देवीदत्त शर्मा के अनुसार यदि इनके लिखे हुए खर्रे भी मिल जाते तो इनकी समस्त रचना एक लाख से अधिक पदों में होती। उन्होंने तत्कालीन नरेशों के बारे में भी कई रचनाएँ कीं। हिंदी साहित्य के आधुनिक पितामहों को गुमानी जी को खड़ी बोली का पहला कवि मान लेना चाहिए।

गंगोत्री गर्ब्याल : उत्तराखण्ड की अथक समाजसेवी महिला

                                        सीमांत प्रांतर पिथौरागढ़ के धारचूला में साढ़े दस हजार फीट की ऊंचाई पर बसे गर्ब्यांग गांव की गंगोत्री गर्ब्याल शिक्षा के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट सेवाओं के कारण 1964 राष्ट्रपति डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हुई। जिसका श्रेय उन्होंने जनभावना को ही दिया था। इनका जन्म 9 दिसम्बर, 1918 में हुआ था, गंगोत्री जी शैक्षिक संस्थाओं से जुड़ी रही, शिक्षा जगत और समाजसेवा में गंगोत्री जी की सेवायें अनुकरणीय हैं। इनका सम्पूर्ण जीवन शिक्षा के क्षेत्र में समर्पित होकर कार्य करते हुये व्यतीत हुआ। सेवानिवृत्ति से मृत्यु तक वे कैलाश नारायण आश्रम, पिथौरागढ़ में अवैतनिक व्यवस्थापक के रुप में सेवारत रहीं। गंगोत्री जी बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि की अति मेधावी छात्रा थी, उन्होंने 1931 में वर्नाक्यूलर लोअर मिडिल उत्तीर्ण कर लिया था। उस समय ओई०टी०सी० उत्तीर्ण को ग्रामीण पाठशाला में नौकरी मिल जाती थी। मिस ई. विलियम्स, तत्कालीन सर्वप्रथम बालिका मुख्य निरीक्षका थीं, पर्वतीय क्षेत्रों की महिलाओं को उन्होंने शिक्षा के प्रति प्रोत्साहित करने में बड़ी रुचि दिखाई, वे एंग्लो इंडियन थीं। सीमान्त क्षेत्रों से आई छात्राओं का वह विशेष ध्यान रखती थीं,उन्होंने ही छात्रावास की तत्कालीन संरक्षिका रंदा दीदी से कहा कि गंगोत्री को हाईस्कूल में प्रवेश दिलायें, छात्रवृत्ति मैं दूंगी। यदि विवाह हो भी जाये तो भी आगे पढने में क्या आपत्ति हो सकती है।

                          1935 में तीन दिन की बीमारी के पश्चात गांव में इनके मंगेतर की मृत्यु हो गई, तब गंगोत्री जी एडम्स हाई स्कूल में पढ़ रही थीं। बालमन दुःखी हुआ, 1937 में गंगोत्री जी को श्री नारायण स्वामी  के सत्संग व सानिध्य का अवसर मिला। इन्होंने  नारायण स्वामी से दीक्षा  ले ली और गुरुमंत्र को जीवन का पथ माना।
                                         इसी दौरान बरेली में इन्होंने ई०टी०सी० (इंग्लिश टीचर सर्टिफिकेट) में प्रवेश लिया। ई.टी.सी. उत्तीर्ण करने के बाद 1939 में गंगोत्री जी की नियुक्ति सी०टी० ग्रेड में राजकीय कन्या हाईस्कूल, बरेली में हुई। पूरे प्रदेश में यही प्रथम हाईस्कूल था, यहां पर मिसेज एलाय प्रधानाचार्य थीं, कुछ वर्ष बाद यह इंटर कालेज हो गया। छुट्टियों में कभी ये अल्मोड़ा रंदा दीदी के पास तथा कभी मां आनन्दमयी के आश्रम देहरादून जाया करती थीं। उन्होंने इण्टर की परीक्षा निजी रुप से पास की और इसी तरह बी०ए० तथा एम०ए० भी पास किया। अध्ययनावकाश लेकर राजकीय महिला प्रशिक्षण महाविद्यालय, प्रयाग से एल०टी० किया। 1945 में राजकीय कन्या हाईस्कूल, अल्मोड़ा खुला तो यह अल्मोड़ा आ गई। पुनः रंदा दीदी के संरक्षण में रहीं। गर्मियों की छुट्टियों में शांति निकेतन से घर आई जयंती पांडे, जयंती पन्त, गौरा पाण्डे (शिवानी जी) के सानिध्य में भी रहीं।
                                               जब समाज सेवा की धुन लगी तो गंगोत्री जी 1948 में अस्कोट क्षेत्र से जिला परिषर, अल्मोड़ा की निर्विरोध सदस्य चुनी गई। अब वे शिक्षण कार्यों के अतिरिक्त सामाजिक कार्यों में भी रुचि लेने लगीं, लोगों की समस्यायें हल करने लगी, वे जिला परिषद, अल्मोड़ा की उपाध्यक्ष भी रहीं।

                                         वे ग्राम पाठशालाओं का निरीक्षण कर समस्या समाधान के लिये सदैव प्रयत्नशील रहीं। स्त्री शिक्षा विरोधी रुढिवादियों को अब स्त्री शिक्षा का महत्व समझ में आने लगा, वे कन्याओं का स्कूल भेजने लगे। गंगोत्री जी मद्य निषेध पर भी बोलती थीं, अल्मोड़ा में 1946 से 1952 तक महिला नार्मल स्कूल में कार्यरत रहकर वे विभिन्न समाज सेवी संस्थाओं से जुड़ी रहीं। 1949-50 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया, चीनी तिब्बतियों पर आधिपत्य जमाने लगे और तिब्बती जनता को अपने ढांचे में ढालने हेतु स्कूल, अस्पताल आदि की सुविधा देने लगे। सीमान्त के भारतीय व्यापारियों पर भी चीनियों का अंकुश बढ़ने लगा, अतः सीमान्तवासियों को अपनी सुरक्षा की चिंता होने लगी। तब उन्होंने 24 फरवरी से 26 फरवरी, 1951 में रामनगर, जिला नैनीताल में एक विराट सम्मेलन का आयोजन किया। इस हिमालय प्रांतीय सम्मेलन में लाहौल, कुल्लू-कांगड़ा, गढ़वाल, कुमाऊं के जनप्रतिनिधि सम्म्लित थे, तत्कालीन सांसद देवीदत्त पन्त तथा विधायक  हर गोबिन्द पन्त भी आमंत्रित थे, व्यापारियो एवं जनता का बड़ा सराहनीय सहयोग भोजन तथा व्यवस्था के लिये था। प्रतिनिधियों और नागरिकों ने बहुत बड़ा जुलूस निकालकर सम्मेलन का प्रारम्भ किया। ’सीमान्त को बचाओ’ ’सुरक्षा की व्यवस्था हो’ ’व्यापार बचाओ’ ’सीमान्त का विकास करो’ आदि जोशीले नारे लगाये गये, स्वागताध्यक्ष कार्य गंगोत्री जी के सुपुर्द था। आगंतुक, जनप्रतिनिधियों एवं उपस्थित जनसमूह का स्वागत करते हुये सीमान्त सम्मेलन के उद्देश्यों पर उन्होंने प्रकाश डाला। तत्कालीन समस्त समस्याओं को लेकर उनकी मांगों को पूरा करवाने के लिये एक समिति का गठन किया ग्या, जिसका नाम हिमालय सीमान्त संघ रखा गया। गंगोत्री गर्ब्याल कार्यकारिणी के सात सदस्यों में एक मात्र महिला सदस्य थीं, तब यह भी निश्चय किया गया कि संघ का एक शिष्टमंडल अपनी मांगों को लेकर प्रधानमंत्री के पास दिल्ली जायेगा।
गंगोत्री गर्ब्याल दारमा, से शिष्टमंडल की सदस्य थीं, अपने कार्यकाल में गंगोत्री जी ने स्त्री शिक्षा के प्रचार और प्रसार के लिये समर्पित भाव से कार्य किया। जब अल्मोड़ा में छात्रावास न था, तब इन्होंने सीमान्त क्षेत्रों से आने वाली समस्त छात्राओं को अपने पास रखा और शिक्षित किया। परिवार की तरह एक ही रसोई होती थी, कुछ छात्रायें कुछ महीनों से लेकर 15 वर्ष तक इनके साथ रहीं, एक जाती, दूसरी आती, यही क्रम चलता रहा।
सीमान्त पर तैनात जवानों के लिये उन्होंने सेना सेवा समिति का गठन किया, वे हाथ से बने गरम कपड़े और डिब्बा बन्द भोजन फौजी भाइयों के लिये भेजती। जिलाधिकारी के संरक्षण में इन सब कार्यों में उत्साहपूर्वक भाग लेने वाली वहां की कुछ अन्य शिक्षिकायें माया खर्कवाल, जानकी जोशी, विभा मासीवाल तथा सुशीला उप्रेती भी थीं। राजकीय इन्टर कालेज में नियुक्त सुश्री गंगोत्री 1961 में लोक सेवा आयोग द्वारा चयनित होकर प्रधानाध्यापिका के पद पर उत्तरकाशी गई। तब कक्षा दस में मात्र दो छात्रायें थीं, गंगोत्री जी के सतत प्रयास से उनमें वृद्धि होती चली गई। 1962 में चीन आक्रमण के समय राष्ट्रीय सुरक्षा कोष  में धन संचय हेतु गंगोत्री जी की पहल और प्रेरणा से छात्राओं ने एक सांस्कृतिक कार्यक्रम तैयार कर मकर संक्रान्ति के पर्व पर प्रस्तुत किया तथा उस कार्यक्रम से 2000 रुपये की राशि एकत्र कर राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में दी, इससे तत्कालीन मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी बहुत प्रसन्न हुईं। गंगोत्री जी सेवानिवृत्ति के बाद भी उसी गति और भावना से समाज सेवा में संलग्न रहीं। दिनांक 20 अगस्त, 1999 को इनका देहावसान हो गया। इनकी स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने की भावना को अक्षुण्ण रखने के लिये जनपद पिथौरागढ़ के राजकीय बालिका इण्टर कालेज का नाम गंगोत्री गर्ब्याल राजकीय बालिका इण्टर कालेज रखा गया है।
                                                      इस विभूति को मेरा पहाड का शत-शत नमन।

कैप्टन राम सिंह: राष्ट्रगान के धुन निर्माता

                           आजाद हिन्द फौज के सिपाही और संगीतकार रहे कै० राम सिंह ठाकुर ने ही भारत के राष्ट्र गान “जन गन मन” की धुन बनाई थी। वे मूलतः पिथौरागढ़ जनपद के मूनाकोट गांव के मूल निवासी थे, उनके दादा जमनी चंद जी 1890 के आस-पास हिमाचल प्रदेश में जाकर बस गये थे।
15 अगस्त 1914 को वहीं उनका जन्म हुआ और वह बचपने से ही संगीत प्रेमी थे। 14 वर्ष की आयु में ही वे गोरखा ब्वाय कम्पनी में भर्ती हो गये। पश्चिमोत्तर प्रांत में उन्होंने अपनी वीरता प्रदर्शित कर किंग जार्ज-5 मेडल प्राप्त किया। अगस्त 1941 में वे बिट्रिश सिपाही के रुप में इपोह भेजे गये, पर्ल हार्बर पर जापानी हमले के दौरान उन्हें जापानियों द्वारा बन्दी बना लिया गया। जुलाई 1942 में इन्हीं युद्ध बन्दियों से बनी आजाद हिन्द फौज में यह भी सिपाही के रुप में नियुक्त हो गये। बचपने में जानवर के सींग से सुर निकालने वाले राम सिंह अपनी संगीत कला के कारण सभी युद्ध बन्दियों में काफी लोकप्रिय थे। 3 जुलाई, 1943 को जब नेताजी सिंगापुर पहुंचे तो राम सिंह ने उनके स्वागत के लिये एक गीत तैयार किया-
                             “सुभाष जी, सुभाष जी, वो जाने हिन्द आ गये
                               है नाज जिसपै हिन्द को वो जाने हिन्द आ गये”
 अपनी पहली ही मुलाकात में राम सिंह जी ने नेताजी का दिल जीत लिया, जिसका प्रतिफल उन्हें मिला सुभाष जी की वायलिन के रुप में, {इस वायलिन को वह हमेशा अपने साथ रखते थे} और उन्हें आजाद हिन्द फौज में बहादुरी और जोश भरा ओजस्वी गीत-संगीत तैयार करने की जिम्मेदारी भी। यहां से उनका गीत-संगीत के साथ-साथ सैनिक कार्य का सफर शुरु हुआ और “कदम-कदम बढ़ाये जा-खुशी के गीत गाये जा” जैसे सैकड़ों ओजस्वी गीतों की धुनों की रचना उन्होंने की। वर्ष 1945 में उन्हें अंग्रेजी सेना द्वारा रंगून में गिरफ्तार कर लिया गया। 11 अप्रैल, 1946 को उनकी रिहाई मुल्तान में हुई। 
 
 
                                20 जून, 1946 को बाल्मीकि भवन में महात्मा गांधी के समक्ष “शुभ सुख चैन की बरखा बरसे” गीत गाकर उन्हें भी अपनी मुरीद बना लिया। 15 अगस्त, 1947 को राम सिंह के नेतृत्व में आई०एन०ए० के आर्केस्ट्रा ने लाल किले पर “शुभ-सुख चैन की बरखा बरसे” गीत की धुन बजाई। यह गीत रवीन्द्र नाथ टैगोर जी के “जन-गण-मन” का हिन्दी अनुवाद था और इसे कुछ संशोधनों के साथ नेताजी के खास सलाहकारों के साथ नेता जी ने ही लिखा था और इसकी धुन बनाई थी कै० राम सिंह ठाकुर ने। “कौमी तराना” नाम से यह गीत आजाद हिन्द फौज का राष्ट्रीय गीत बना, इस गीत की ही धुन को बाद में “जन-गण-मन” की धुन के रुप में प्रयोग किया गया। इस तरह से हमारे राष्ट्र गान की धुन राम सिंह जी द्वारा ही बनाई गई है।

                  अगस्त, 1948 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु के अनुरोध पर वह उत्तर प्रदेश पी०ए०सी० में सब इंस्पेक्टर के रुप में लखनऊ आये और पी०ए०सी० के बैण्ड मास्टर बन गये। 30 जून, 1974 को वे सेवानिवृत्त हो गये और उन्हें “आजीवन पी०ए०सी० के संगीतकार” का मानद पद दिया गया। 15 अप्रैल, 2002 को इस महान संगीतकार का देहावसान हो गया। 

                            कै० राम सिंह जी को कई पुरस्कार मिले और अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वे लखनऊ की पी०ए०सी० कालोनी में रहते थे, वायरलेस चौराहे से सुबह शाम गुजरते वायलिन पर मार्मिक धुनें अक्सर सुनाई देती थी। उनके द्वारा कई पहाड़ी धुनें भी बनाई गईं, जैसे- “नैनीताला-नैनीताला…घुमी आयो रैला”।  नेताजी द्वारा भेंट किया गया वायलिन उन्हें बहुत प्रिय था, वे कहते थे “बहुत जी लिया, अब तो यही इच्छा है कि जब मरुं यह वायलिन ही मेरे हाथ में हो” अनेक सम्मानों से पुरुस्कृत राम सिंह जी कहा करते थे कि “जिस छाती पर नेता जी के हाथों से तमगा लगा हो, उस छाती पर और मेडल फीके ही हैं”
उनको निम्न पुरस्कार मिले-
  • किंग जार्ज-5 मेडल, 1937
  • नेताजी गोल्ड मेडल, 1943
  • उ०प्र० राज्यपाल गोल्ड मेडल (प्रथम), 1956
  • ताम्र पत्र,1972
  • राष्ट्रपति पुलिस पदक, 1972
  • उ०प्र० संगीत नाटक अकादमी एवार्ड,1979
  • सिक्किम सरकार का प्रथम मित्रसेन पुरस्कार,1993
  • पश्चिम बंगाल सरकार का प्रथम आई०एन०ए० पुरस्कार, 1996

तुलसी देवी : उत्तराखण्ड की उद्यमशील और समाजसेवी महिला

                              उद्यमशीलता के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण नाम है तुलसी देवी जी का, पिथौरागढ़ जिले के नौलरा गांव में 1919 में भोटिया व्यापारी श्री खीम सिंह रावत और सरस्वती रावत के घर पर उनका जन्म हुआ। पर्वतीय क्षेत्र की भोटिया जनजाति का साग-सब्जी से हरा-भरा यह छोटा सा गांव उनका अस्थाई आवास था, जहां ऊन धोने, सुखाने, तकुओं पर कातने तथा ऊनी वस्त्र बुनने में महिलायें व्यस्त रहती थीं। तुलसी देवी का शैशव ऐसे ही वातावरण में बीता, मात्र पांच साल की उम्र में भी तुलसी के पिता और भाई का देहान्त हो गया। अतः मां-बेटी इस असहाय स्थिति में एक दूसरे के सहारे जीने लगीं।

                                        मां ने तुलसी देवी को प्राथमिक शिक्षा दिलाई, यह ’माइग्रेशन’ वाला स्कूल था, सम्पन्न व्यापारी अपने बच्चों को इसके बाद अल्मोड़ा या पिथौरागढ़ भेजते थे। किन्तु पितृविहीन तुलसी आगे न पढ़ पाई। इसी बीच तुलसी देवी की मां 1940 में अपने भतीजे के पास ग्वालदम चलीं आईं और 1943 में एक संभ्रान्त परिवार के दीवान सिंह राणा के साथ तुलसी का विवाह हुआ। इसके बाद इनका जीवनाध्याय नये ढंग से प्रारम्भ हुआ, किन्तु 17 वर्ष की आयु में ही तुलसी को वैधव्य की मार झेलनी पड़ी। इनके ससुराल वालों ने परम्परानुसार उनका विवाह उनके देवर से करना चाहा, किन्तु तुलसी ने इसे घृणास्पद समझा। उन्होंने इसका विरोध किया और सम्पन्नता को त्याग कर अपनी मां के पास लौट आईं।

                तुलसी अपनी विपत्ति से जूझती हुई अपने ऊनी कारोबार में कर्मठता से जुट गई, किन्तु वह और भी कुछ करना चाहती थीं। इनके एक चचेरे भाई कांगेसी कार्यकर्ता थे, उन्होंने चाय बागान की कुछ भूमि तुलसी देवी को दान में दे दी, जब चाय बगान खत्म हुये तो तीन नाली भूमि लीज पर तुलसी देवी के नाम पर कर दी। तुलसी देवी ने उस जमीन पर अपना घर बनाया और अपनी आजीविका के प्रबन्ध करने लगीं।

                                 1946 में कौसानी में महात्मा गांधी की शिष्या सरला बहन ने महिलाओं के लिये एक संस्था लक्ष्मी आश्रम खोली, तुलसी देवी सरला बहन के सम्पर्क में आई। जुझारु और चिंतनशील तुलसी देवी ने सोचा कि अपनी भूमि केवल व्यक्तिगत सुख के लिये ही क्यों उपयोग की जाय। अतः मन में आश्रम से प्रेरणा लेकर इन्होंने 1952 में इस भूमि पर कताई-बुनाई केन्द्र की स्थापना की और 1957 में ऊन गॄह उद्योग समिति  के नाम से एक संस्था गठित कर उसे पंजीकृत करवाया। परमार्थी तुलसी देवी ने असहाय स्त्रियों को ऊन उद्योग का प्रशिक्षण देकर स्वालम्बी बनाकर टूटते परिवारों को सहारा दिया। वे सदैव आश्रम से सम्पर्क बनाये रखतीं, उन्होंने निष्ठापूर्वक कार्य करते हुये कई अनाथ बालिकाओं का पालन-पोषण कर शिक्षा-दीक्षा देकर उनका विवाह कर नई राह दी। इसी प्रकार से बालकों को भी प्रशिक्षित कर स्वरोजगार के अवसर उन्हें सुलभ करवाये। उदार दॄष्टिकोणवादी तुलसी 1972 में जिला कांग्रेस कमेटी की महिला संयोजिका के रुप में कार्य करने लगीं औत थराली प्रखण्ड की क्षेत्रीय सदस्या भी निर्वाचित हुईं। 1974 में वे जिला परिषद चमोली की अध्यक्ष रहीं, 1977 में उत्तर प्रदेश राज्य समाज कल्याण सलाहकार बोर्ड द्वारा सीमान्त कल्याण विस्तार परियोजना, ग्वालदम की अध्यक्ष भी मनोनीत की गई। उन्होंने अपनी संस्था में 1978 से अर्धशिक्षित महिलाओं और लड़कियों के लिये एक कंडेस्ड कोर्स चलाया, उन्होंने 1980 में ट्राइसेम योजना के अन्तर्गत प्रशिक्षण देना शुरु किया, जो 1987 तक चला। उन्होंने इन प्रशिक्षित महिलाओं को ’हाड़ा’ योजना के तहत ॠण दिलवाकर करघों की बुनाई के साधन दिलवाये। उन्होंने ग्रामीण इलाकों को छोटे बच्चों को शिक्षा से जोड़ने के लिये बालवाड़ी के कार्यक्रम भी चलवाये।

                           आविष्कारक प्रकृति की तुलसी देवी ने 1967 में एक नये प्रकार का शाल बनाया, जिसे उन्होंने तुलसी रानी शाल नाम दिया। इसका प्रथम निर्माण आस्ट्रेलियन ऊन पर किया, जो उतना सफल नहीं रहा, बाद में अंगोरा ऊन से यह शाल बनाया, जो अपनी सुंदरता के कारण लोगों को बहुत पसन्द आया। 1983 में इस शाल के निर्माण हेतु उन्होंने तुलसी रानी शाल फैक्टरी भी बनायी।

तुलसी देवी ने महिलाओं को सन्देश देते हुये एक बार कहा था कि ’रोओ नहीं, आगे बढ़ो, यदि शिक्षित नहीं हो तो अपने हाथों व दिमाग का उपयोग करो, हारो नहीं, भगवान ने तुम्हें शक्ति दी है, उसको बढ़ाओ, अपने पैरो पर खड़ी हो जाओ।’

बुधवार, 5 जुलाई 2017

मोला राम तोमर

मोला राम तोमर-  यह नाम उत्तराखण्ड की संस्कृति, कला, इतिहास एवं साहित्य को विरचित करने वाले उस व्यक्ति का नाम है, जिसने अपनी अद्वितीय प्रतिभा से इस राज्य के इतिहास को हमारे लिये संजोकर रखा। मोला राम का जन्म श्री मंगत राम एवं श्रीमती रामी देवी के घर 1743 में श्रीनगर (गढवाल) में हुआ। कहा जाता है कि इनके पुरखे  श्याम दास और हरदास मुगल शासकों के दरबार में चित्रकार थे और हिमाचल प्रदेश के मूल निवासी थे। लेकिन दाराशिकोह के पुत्र सलमान शिकोह के साथ 1695 में औरंगजेब के कहर से बचने के लिये गढ़वाल के राजा महाराज पृथ्वी शाह की शरण में आ गये। महाराज ने इन्हें प्रश्रय दिया और अपने राज्य में चित्रकारी आदि का काम इन्हें सौंप दिया। उन्हीं के वंश में मोला राम का जन्म हुआ और इन्होनें 1777 से 1804  तक महाराज प्रदीप शाह, महाराज ललित शाह, महाराज, जयकृत शाह और महाराज प्रद्युम्न शाह के साथ कार्य किये। इस बीच में मोलाराम ने गढ़वाली शैली के चित्रों का आविष्कार कर यहां की चित्रकार शैली को एक नई पहचान दी और इस शैली को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये एक विद्यालय की भी स्थापना की। 1833 में इनकी मृत्यु श्रीनगर में ही हुई, इन्होंने अपने जीवन काल में कई चित्र बनाये और कई पुस्तकों तथा कविताओं की भी रचना की। इनके बनाये चित्र ब्रिटेन के संग्रहालय, बोस्ट्न संग्रहालय, हे०न०ब० गढ़वाल वि०वि० के संग्रहालय, भारत कला भवन, बनारस, अहमदाबाद के संग्रहालय और लखनऊ, दिल्ली, कलकत्ता तथा इलाहाबाद की आर्ट गैलरी  में देखे जा सकते हैं। इन पर बैरिस्टर मुकुन्दी लाल  जी ने 1968 में एक पुस्तक भी लिखी।

टिंचरी माई उर्फ इच्छागिरि माई : एक जीवट व्यक्तित्व

                         शिक्षा, मद्य निषेध तथा अनेक सामाजिक गतिविधियों से सम्बद्ध  टिंचरीमाई उत्तराखण्ड की एक सुपरिचित महिला थी पौड़ी गढ़वाल के थलीसैंण क्षेत्र के मन्ज्यूर गांव के रामदत्त नौटियाल के घर जन्मी नन्हीं दीपा की जीवन यात्रा  उत्तराखण्ड की नारी के उत्पीड़न, सामाजिक कुरीतियों तथा विसंगतियों के विरुद्ध लड़ी गई लड़ाई और साहस का अनुकरणीय उदाहरण है। बीसवीं सदी के आरम्भ में जन्मी दीपा दो वर्ष में ही मातृ विहीन हो गई और पांच वर्ष की आयु में पिता का साया भी उनके सिर से उठ गया। गांव के रिश्ते के चाचा ने ही नन्हीं अनाथ दीपा का पालन-पोषण किया। साप्ताहिकसत्यपथके प्रधान संपादक श्री पीतांबर देवरानी को एक भेंटवार्ता में अपनी शिक्षा के बारे में दीपा (माई) ने बताया था-छोरा! बहुत शैतान, बड़ी नटखट थी मैं, बचपन में मैं पढ़ती-लिखती कैसे? तब स्कूल ही कहां थे, पहाड़ में और मेरा था ही कौन जो मुझे पढ़ाता। वैसे भी बेटियों को तब पढ़ाता भी कौन था। पेंशन भी अंगूठा लगाकर ही लेती हूं।  अपने अशिक्षित होने की पीड़ा माई को हमेशा सताती रहती थी, सात वर्ष में माई का विवाह गंवाणी गांव के सत्रह साल बड़े गणेश राम से हुआ। ससुराल में एक दिन बिताकर माई अपने पिता के साथ रावलपिंडी चली गई। पति हवलदार गणेश राम पत्नी को बड़े लाड़-प्यार से रखते थे। जब वे लड़ाई में गये तो लौटकर नहीं आये, उनकी मृत्यु के बाद एक अंग्रेज अफसर की देख-रेख में माई एक सप्ताह तक रही। अधिकारी ने माई को बुलाकर उनके पति का सारा हिसाब-किताब समझाकर सब रुपये आदि एक अंग्रेज अफसर को सौंप दिये और उसके साथ ससम्मान कालौडांडा छावनी (लैंसडाऊन) भेज दिया। माई तब केवल उन्नीस वर्ष की थीं।

                            मायके से असहाय, ससुराल से तिरस्कृत, अपने भविष्य के लिये चिंतित माई ने अपना मार्ग स्वयं बनाने का उसी रात निर्णय कर लिया। अंग्रेज अधिकारी के साथ अकेले सफर कर लैंसडाऊन पहुंचने वाली माई अति निर्भीक स्वभाव की थी, वे मानती थीं कि हमने अंग्रेजों के अवगुण तो अपनाये, लेकिन सदगुण नहीं अपने पति के साथ अल्पावधि में अंग्रेजों के सदगुणॊं के प्रति गुणग्राही माई यह स्वीकार करती थी कि अंग्रेज नारी जाति का सम्मान करना जानते हैं। माई कहती थी कि यदि कोई हिंदुस्तानी मेरे साथ आता तो शायद मेरा पैसा लूट कर मुझे भी बेच खाता। अंग्रेज अफसर ने माई का पैसा डाकखाने में जमा करवा कर उसको प्रधान के पास सौंपा, किंतु विधवा नारी को ससुराल में मात्र तिरस्कार, अपमान, उपेक्षा और कष्टतम जीवन के और क्या मिलता। जैसा कि वैधव्य का जीवन जीने वाली हर भारतीय नारी के साथ होता है, माई फिर वहां से निकलकर लाहौर पहुंच गई, वहां एक मन्दिर में कुछ दिन रहकर एक विदुषी, सुसंकृत सन्यासिनी से माई ने दीक्षा ली और तब वे दीपा से इच्छागिरि माई बन गई और वीतराग एवं निस्पृह जीवन जीने लगी, किंतु १९४७ के सांम्प्रदायिक दंगों के कारण पंजाब का वातावरण विषाक्त हो चुका था। माई वहां रहकर हैवानियत के विरुद्ध संघर्ष करना चाहती थीं, लेकिन अपनी गुरु के साथ उन्हें हरिद्वार आना पड़ा।
लौटकर वह नौ माह कालीमंदिर चंडीघाट में रहीं। वहां माई ने ढोंगी साधुओं के दुष्कर्म देखे, जैसे मछली मारकर खाना, गंगा स्नान के समय मछलियां छिपाकर लाना, दिन भर सुल्फा-गांजा का नशा करना और निठल्ले पड़े रहना। माई ने उनसे लड़ने की ठानी पर उनकी सामूहिक शक्ति और माई निपट अकेली, लड़ती भी तो आखिर कहां तक। अतः माई इधर-उधर घूमकर सिगड्डी-भाबर गई और घास-फूस की झोपड़ी बनाकर रहने लगी। वहां पर पानी का बहुत अभाव था, महिलाओं को बहुत दूर से पानी लाना पड़ता था। माई को यह सहन नहीं हुआ, वह अधिकारियों से मिली, डिप्टी कलेक्टर से मिली, किंतु कुछ नहीं हुआ। भला माई कहां हार मानती, अतः दिल्ली पहुंच गई और जवाहर बाबा की कोठी के फाटक पर धरना देकर बैठ गई। नेहरु जी जब कार्यालय जा रहे थे, तो माई उनकी गाड़ी के सामने खड़ी हो गई। पुलिस वाले उन्हें खींचकर हटाने लगे, नेहरु जी गाड़ी से नीचे उतरे और माई ने गांव की बहू-बेटियों की खैरी-विपदा बाबा को सुना दी। उस दिन उनका बदन बुखार से तप रहा था। माई ने बताया कि  मैने नेहरु बाबा का हाथ पकड़ लिया  और पूछाबोल बाबा पानी देगा या नहीं’  नेहरु बाबा बोलामाई तुझे तो तेज बुखार हैउन्होंने मुझे अस्पताल भिजवाया और वापस लौटते समय कुछ कपड़े भी दिये और कहाअब जाओ, जल्दी ही पानी भी मिल जायेगाहां बाबा, कुछ दिनों बाद पानी वाले साहब सिगड्डी गये और सिगड्डी में पानी भी गया, अब तो मंतरी-संतरी सब झूठ बोलते हैं। पहले ऐसी बात नहीं थी, जो कह देते थे, वह कर भी देते थे।

                       एक बार माई की कुटिया एक आदमी ने पटवारी से मिलकर हड़प ली, लेकिन माई अपने कारण नहीं लड़ी और वहां से मोटाढांक चली गई, वहां पर एक अध्यापक श्री मोहन सिंह ने उन्हें रहने के लिये एक कमरा दे दिया। मास्टर जी चाहते थे कि वहां पर एक स्कूल बने। इस संबंध में कोटद्वार के गढ़गौरव के सम्पादक श्री कुंवर सिंह नेगीकर्मठबताते हैं कि एक बार शिक्षा पर चर्चा हुई तो उन्होंने माई से कहा कि यहां पर कोई स्कूल नहीं है। माई ने इस बात को बहुत गंभीरता से लिया और जाने कब एक ट्रक ईंट वहां लाकर डाल दी। उस समय कोटद्वार बिजनौर जिले में था। तब रामपुर के जिलाधीश .जे. खान थे, जब उन्हें यह पता चला तो बोलेकि बड़े शर्म की बात है, माई ने यहां ईंटॆ डलवा दी हैं तो स्कूल तो अब बनाना ही पड़ेगा।माई अपने पैसों से सरिया, सीमेन्ट लाती रही तथा उस दौरान प्राइवेट मिडिल स्कूल बनकर तैयार हो गया। पहले तो यह स्कूल छात्राओं के लिये ही बना, बाद में यह हाईस्कूल हो गया। माई ने इस स्कूल का नाम अपने पति स्वर्गीय गणेश राम के नाम पर रखवाया और फिर यह इंटर कालेज हुआ, अब इस कालेज में सह शिक्षा है।

                       कोटद्वार में पानी का सदा अभाव रहा है, माई इसके लिये स्वयं लखनऊ गई, सचिवालय् के सामने भूख-हड़ताल ओअर बैठ गई। उस समय मुख्यमंत्री से सुनवाई हुई और पेयजल की व्यवस्था हो गई। मोटाढांक में अपना कार्य पूरा करके माई बदरीनाथ धाम चली गई, वहां पर वह नौ साल तक रहीं, वहां पर रावल ने इनके आवास और भोजन की व्यवस्था की। बदरीनाथ के बाद वह चार साल केदारनाथ में रहीं। किन्तु वहां के देवदर्शन में अमीर-गरीब का भेदभाव और दिन-प्रतिदिन बढ़ती अस्वछ्ता और अपवित्रता देखकर माई खिन्न हुई और वहां से पौड़ी गई। वहां १९५५-५६ के आस-पास एक दिन डाकखाने के बरामदे में माई सुस्ता रही थी, सामने शराब व्यापारी  मित्तल की टिंचरी की दुकान थी, जहां पर एक आदमी टिंचरी पीकर लडखड़ाता हुआ महिलाओं की ओर अभद्रता से इशारे करने लगा और फिर अचेत होकर नाली में गिर गया। गुस्से से कांपती माई कंडोलिया डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर पहुंची, कमिश्नर साहब कुछ लिख रहे थे, वह माई को जानते थे, उन्होंने माई से बैठने को कहा। किंतु क्रोधित माई ने कमिश्नर का हाथ पकड़ा और बोलीतू यहां बैठा है, चल मेरे साथ, देख, तेरे राज में क्या अनर्थ हो रहा है।माई के क्रोध को देखकर सहमे कमिश्नर ने जीप मंगाई और वहां जा पहुंचे, जहां वह शराबी खून से सना पड़ा था। माई बोलीदेख लिया तूने, क्या हो रहा है तेरी नाक के नीचे, लेकिन तू कुछ नहीं कर पायेगा, तू जा और सुन, मैं यह तमाशा नहीं होने दूंगी……आग लगा दूंगी इस दुकान पर—–तू मुझे जेल भेज देना—-मैं जाने दे दूंगी पर टिंचरी नहीं बिकने दूंगी। डिप्टी कमिश्नर वापस चले गये।
 
                         माई मिट्टी का तेल और माचिस की डिबिया लाई और बंद दरवाजा तोड़ कर अंदर चली गई, टिंचरी पी रहे लोग भाग खड़े हुये, भीड़ जुटने लगी। काली का रुप धारण किये माई ने दुकान में आग लगा दी, दुकान जलकर स्वाहा हो गई, माई को बड़ी शांति मिली, मगर माई भागी नहीं। डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर स्वयं पहूंच  गई और बोली टिंचरी की दुकान फूंक आई हूं, अब मुझे जेल भेजना है तो भेज दे  दिन भर कमिश्नर ने माई को अपने बंगले पर बिठाकर रखा और शाम को अपनी जीप मॆं बिठाकर लैंसडाऊन भेज दिया। सब जगह खबर फैल गई, माई ने गजब कर दिया, इस घटना की व्यापक प्रतिक्रिया हुई, महिलायें अत्यन्त हर्षित हुई, भले ही शराबी क्षुब्ध हुये हों। तब से इच्छागिरि माईटिंचरी माईके नाम से विख्यात हो गई। नशे के खिलाफ उनका अभियान लगातार जारी रहा।
                     वे आत्मप्रचार से सदैव दूर रहतीं थीं, वात्सल्यपूर्ण हृदय, निस्पृह, परदुःख कातर, तपस्विनी, कर्मनिष्ठ, समाजसेवी माई जितने गुस्सैल स्वभाव की थी, उतनी ही संवेदनशील भी। राजनीतिक  लोगोंकी स्वार्थलोलुपता से वे हमेशा दुःखी रही, क्षुब्ध होती रहीं। वे बड़ी स्वाभिमानी थी, दान स्वरुप किसी से कभी भी कुछ नहीं लेती थी, कहीं जाती तो केवल भोजन ही करती थी। वे स्वयं दानशीला थी, शिक्षा, मद्यनिषेध एवं प्रमार्थ के लिये माई के कार्य अविस्मरणीय हैं। अस्सी वर्ष से कुछ अधिक आयु में १९ जून, १९९२ को माई की दैहिक लीला समाप्त हुई।

मेरा पहाड़  से साभार

कीर्तिशाह

कीर्तिशाह ⏩ 19 जनवरी, 1874 को जन्में। 13 वर्ष की आयु में गद्दी में बैठे। ⏩ महारानी गुलेरिया के प्रभूत्वाधिन कार्य। ⏩ 1892 में नेप...