शिक्षा, मद्य निषेध तथा अनेक सामाजिक गतिविधियों से सम्बद्ध टिंचरीमाई उत्तराखण्ड की एक सुपरिचित महिला थी। पौड़ी गढ़वाल के थलीसैंण क्षेत्र के मन्ज्यूर गांव के रामदत्त नौटियाल के घर जन्मी नन्हीं दीपा की जीवन यात्रा उत्तराखण्ड की नारी के उत्पीड़न, सामाजिक कुरीतियों तथा विसंगतियों के विरुद्ध लड़ी गई लड़ाई और साहस का अनुकरणीय उदाहरण है। बीसवीं सदी के आरम्भ में जन्मी दीपा दो वर्ष में ही मातृ विहीन हो गई और पांच वर्ष की आयु में पिता का साया भी उनके सिर से उठ गया। गांव के रिश्ते के चाचा ने ही नन्हीं अनाथ दीपा का पालन-पोषण किया। साप्ताहिक ’सत्यपथ’ के प्रधान संपादक श्री पीतांबर देवरानी को एक भेंटवार्ता में अपनी शिक्षा के बारे में दीपा (माई) ने बताया था-’छोरा! बहुत शैतान, बड़ी नटखट थी मैं, बचपन में मैं पढ़ती-लिखती कैसे? तब स्कूल ही कहां थे, पहाड़ में और मेरा था ही कौन जो मुझे पढ़ाता। वैसे भी बेटियों को तब पढ़ाता भी कौन था। पेंशन भी अंगूठा लगाकर ही लेती हूं।’ अपने अशिक्षित होने की पीड़ा माई को हमेशा सताती रहती थी, सात वर्ष में माई का विवाह गंवाणी गांव के सत्रह साल बड़े गणेश राम से हुआ। ससुराल में एक दिन बिताकर माई अपने पिता के साथ रावलपिंडी चली गई। पति हवलदार गणेश राम पत्नी को बड़े लाड़-प्यार से रखते थे। जब वे लड़ाई में गये तो लौटकर नहीं आये, उनकी मृत्यु के बाद एक अंग्रेज अफसर की देख-रेख में माई एक सप्ताह तक रही। अधिकारी ने माई को बुलाकर उनके पति का सारा हिसाब-किताब समझाकर सब रुपये आदि एक अंग्रेज अफसर को सौंप दिये और उसके साथ ससम्मान कालौडांडा छावनी (लैंसडाऊन) भेज दिया। माई तब केवल उन्नीस वर्ष की थीं।
मायके से असहाय, ससुराल से तिरस्कृत, अपने भविष्य के लिये चिंतित माई ने अपना मार्ग स्वयं बनाने का उसी रात निर्णय कर लिया। अंग्रेज अधिकारी के साथ अकेले सफर कर लैंसडाऊन पहुंचने वाली माई अति निर्भीक स्वभाव की थी, वे मानती थीं कि हमने अंग्रेजों के अवगुण तो अपनाये, लेकिन सदगुण नहीं। अपने पति के साथ अल्पावधि में अंग्रेजों के सदगुणॊं के प्रति गुणग्राही माई यह स्वीकार करती थी कि अंग्रेज नारी जाति का सम्मान करना जानते हैं। माई कहती थी कि यदि कोई हिंदुस्तानी मेरे साथ आता तो शायद मेरा पैसा लूट कर मुझे भी बेच खाता। अंग्रेज अफसर ने माई का पैसा डाकखाने में जमा करवा कर उसको प्रधान के पास सौंपा, किंतु विधवा नारी को ससुराल में मात्र तिरस्कार, अपमान, उपेक्षा और कष्टतम जीवन के और क्या मिलता। जैसा कि वैधव्य का जीवन जीने वाली हर भारतीय नारी के साथ होता है, माई फिर वहां से निकलकर लाहौर पहुंच गई, वहां एक मन्दिर में कुछ दिन रहकर एक विदुषी, सुसंकृत सन्यासिनी से माई ने दीक्षा ली और तब वे दीपा से इच्छागिरि माई बन गई और वीतराग एवं निस्पृह जीवन जीने लगी, किंतु १९४७ के सांम्प्रदायिक दंगों के कारण पंजाब का वातावरण विषाक्त हो चुका था। माई वहां रहकर हैवानियत के विरुद्ध संघर्ष करना चाहती थीं, लेकिन अपनी गुरु के साथ उन्हें हरिद्वार आना पड़ा।
लौटकर वह नौ माह कालीमंदिर चंडीघाट में रहीं। वहां माई ने ढोंगी साधुओं के दुष्कर्म देखे, जैसे मछली मारकर खाना, गंगा स्नान के समय मछलियां छिपाकर लाना, दिन भर सुल्फा-गांजा का नशा करना और निठल्ले पड़े रहना। माई ने उनसे लड़ने की ठानी पर उनकी सामूहिक शक्ति और माई निपट अकेली, लड़ती भी तो आखिर कहां तक। अतः माई इधर-उधर घूमकर सिगड्डी-भाबर आ गई और घास-फूस की झोपड़ी बनाकर रहने लगी। वहां पर पानी का बहुत अभाव था, महिलाओं को बहुत दूर से पानी लाना पड़ता था। माई को यह सहन नहीं हुआ, वह अधिकारियों से मिली, डिप्टी कलेक्टर से मिली, किंतु कुछ नहीं हुआ। भला माई कहां हार मानती, अतः दिल्ली पहुंच गई और जवाहर बाबा की कोठी के फाटक पर धरना देकर बैठ गई। नेहरु जी जब कार्यालय जा रहे थे, तो माई उनकी गाड़ी के सामने खड़ी हो गई। पुलिस वाले उन्हें खींचकर हटाने लगे, नेहरु जी गाड़ी से नीचे उतरे और माई ने गांव की बहू-बेटियों की खैरी-विपदा बाबा को सुना दी। उस दिन उनका बदन बुखार से तप रहा था। माई ने बताया कि मैने नेहरु बाबा का हाथ पकड़ लिया और पूछा ’बोल बाबा पानी देगा या नहीं’ नेहरु बाबा बोला ’माई तुझे तो तेज बुखार है’ उन्होंने मुझे अस्पताल भिजवाया और वापस लौटते समय कुछ कपड़े भी दिये और कहा ’अब जाओ, जल्दी ही पानी भी मिल जायेगा’ हां बाबा, कुछ दिनों बाद पानी वाले साहब सिगड्डी आ गये और सिगड्डी में पानी भी आ गया, अब तो मंतरी-संतरी सब झूठ बोलते हैं। पहले ऐसी बात नहीं थी, जो कह देते थे, वह कर भी देते थे।
एक बार माई की कुटिया एक आदमी ने पटवारी से मिलकर हड़प ली, लेकिन माई अपने कारण नहीं लड़ी और वहां से मोटाढांक चली गई, वहां पर एक अध्यापक श्री मोहन सिंह ने उन्हें रहने के लिये एक कमरा दे दिया। मास्टर जी चाहते थे कि वहां पर एक स्कूल बने। इस संबंध में कोटद्वार के गढ़गौरव के सम्पादक श्री कुंवर सिंह नेगी “कर्मठ” बताते हैं कि एक बार शिक्षा पर चर्चा हुई तो उन्होंने माई से कहा कि यहां पर कोई स्कूल नहीं है। माई ने इस बात को बहुत गंभीरता से लिया और न जाने कब एक ट्रक ईंट वहां लाकर डाल दी। उस समय कोटद्वार बिजनौर जिले में था। तब रामपुर के जिलाधीश ए.जे. खान थे, जब उन्हें यह पता चला तो बोले “कि बड़े शर्म की बात है, माई ने यहां ईंटॆ डलवा दी हैं तो स्कूल तो अब बनाना ही पड़ेगा।” माई अपने पैसों से सरिया, सीमेन्ट लाती रही तथा उस दौरान प्राइवेट मिडिल स्कूल बनकर तैयार हो गया। पहले तो यह स्कूल छात्राओं के लिये ही बना, बाद में यह हाईस्कूल हो गया। माई ने इस स्कूल का नाम अपने पति स्वर्गीय गणेश राम के नाम पर रखवाया और फिर यह इंटर कालेज हुआ, अब इस कालेज में सह शिक्षा है।
कोटद्वार में पानी का सदा अभाव रहा है, माई इसके लिये स्वयं लखनऊ गई, सचिवालय् के सामने भूख-हड़ताल ओअर बैठ गई। उस समय मुख्यमंत्री से सुनवाई हुई और पेयजल की व्यवस्था हो गई। मोटाढांक में अपना कार्य पूरा करके माई बदरीनाथ धाम चली गई, वहां पर वह नौ साल तक रहीं, वहां पर रावल ने इनके आवास और भोजन की व्यवस्था की। बदरीनाथ के बाद वह चार साल केदारनाथ में रहीं। किन्तु वहां के देवदर्शन में अमीर-गरीब का भेदभाव और दिन-प्रतिदिन बढ़ती अस्वछ्ता और अपवित्रता देखकर माई खिन्न हुई और वहां से पौड़ी आ गई। वहां १९५५-५६ के आस-पास एक दिन डाकखाने के बरामदे में माई सुस्ता रही थी, सामने शराब व्यापारी मित्तल की टिंचरी की दुकान थी, जहां पर एक आदमी टिंचरी पीकर लडखड़ाता हुआ महिलाओं की ओर अभद्रता से इशारे करने लगा और फिर अचेत होकर नाली में गिर गया। गुस्से से कांपती माई कंडोलिया डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर पहुंची, कमिश्नर साहब कुछ लिख रहे थे, वह माई को जानते थे, उन्होंने माई से बैठने को कहा। किंतु क्रोधित माई ने कमिश्नर का हाथ पकड़ा और बोली ’तू यहां बैठा है, चल मेरे साथ, देख, तेरे राज में क्या अनर्थ हो रहा है।’ माई के क्रोध को देखकर सहमे कमिश्नर ने जीप मंगाई और वहां जा पहुंचे, जहां वह शराबी खून से सना पड़ा था। माई बोली ’देख लिया तूने, क्या हो रहा है तेरी नाक के नीचे, लेकिन तू कुछ नहीं कर पायेगा, तू जा और सुन, मैं यह तमाशा नहीं होने दूंगी……आग लगा दूंगी इस दुकान पर—–तू मुझे जेल भेज देना—-मैं जाने दे दूंगी पर टिंचरी नहीं बिकने दूंगी। डिप्टी कमिश्नर वापस चले गये।
माई मिट्टी का तेल और माचिस की डिबिया लाई और बंद दरवाजा तोड़ कर अंदर चली गई, टिंचरी पी रहे लोग भाग खड़े हुये, भीड़ जुटने लगी। काली का रुप धारण किये माई ने दुकान में आग लगा दी, दुकान जलकर स्वाहा हो गई, माई को बड़ी शांति मिली, मगर माई भागी नहीं। डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर स्वयं पहूंच गई और बोली “ टिंचरी की दुकान फूंक आई हूं, अब मुझे जेल भेजना है तो भेज दे” दिन भर कमिश्नर ने माई को अपने बंगले पर बिठाकर रखा और शाम को अपनी जीप मॆं बिठाकर लैंसडाऊन भेज दिया। सब जगह खबर फैल गई, माई ने गजब कर दिया, इस घटना की व्यापक प्रतिक्रिया हुई, महिलायें अत्यन्त हर्षित हुई, भले ही शराबी क्षुब्ध हुये हों। तब से इच्छागिरि माई “टिंचरी माई” के नाम से विख्यात हो गई। नशे के खिलाफ उनका अभियान लगातार जारी रहा।
वे आत्मप्रचार से सदैव दूर रहतीं थीं, वात्सल्यपूर्ण हृदय, निस्पृह, परदुःख कातर, तपस्विनी, कर्मनिष्ठ, समाजसेवी माई जितने गुस्सैल स्वभाव की थी, उतनी ही संवेदनशील भी। राजनीतिक लोगोंकी स्वार्थलोलुपता से वे हमेशा दुःखी रही, क्षुब्ध होती रहीं। वे बड़ी स्वाभिमानी थी, दान स्वरुप किसी से कभी भी कुछ नहीं लेती थी, कहीं जाती तो केवल भोजन ही करती थी। वे स्वयं दानशीला थी, शिक्षा, मद्यनिषेध एवं प्रमार्थ के लिये माई के कार्य अविस्मरणीय हैं। अस्सी वर्ष से कुछ अधिक आयु में १९ जून, १९९२ को माई की दैहिक लीला समाप्त हुई।
मेरा पहाड़ से साभार